Tuesday, May 26, 2020

क्या ख़्वाब देखते हो?

क्या देखते हो खुद को
ख़्वाब में दौड़ता हुआ,
या देखते हो भूकंप में
खुद को रेंगता हुआ?
या कभी
हवा से तेज़ उड़ने लगते हो,
या आसमाँ से
कभी गिरने लगते हो?
क्या डर कर उठ जाते हो?
या आगे देखने के लिए
और सो जाते हो?
क्या ख़्वाब देखते हो?

चले गए जो लोग,
क्या उनसे मिल लेते हो?
कुछ सवाल उनसे पूछ,
कुछ जवाब उनको देते हो?
क्या उनसे मिल कर,
ख़्वाब हक़ीक़त लगने लगता है,
या आंखे खोल कर कभी
हक़ीक़त भी ख़्वाब सा दिखता है?
क्या कभी ख़्वाब और हक़ीक़त का
फर्क़ भूल जाते हो?
क्या ख़्वाब में जीने के लिए
और सो जाते हो?
क्या ख़्वाब देखते हो?

कभी डरावने सपने से जाग कर
खुश हो जाते हो,
कि ख़्वाब ही तो था,
या खूबसूरत सपनों के टूटने पर,
अफसोस मनाते हो,
कि ख़्वाब क्यूं था?
कभी इतने गहरे ख़्वाब देखते हो,
कि याद ही ना आए,
या इतने मौलिक,
कि रात दिन तड़पायें |
क्या ख़्वाबों में कभी,
जीने लग जाते हो?
या ख़्वाबों में जीने के लिए,
सोना चाहते हो?
क्या ख़्वाब देखते हो?

क्या अधूरे ख़्वाब को, वापस सो कर,
पूरा कर लेते हो?
या पूरे ख़्वाबों से जाग कर,
ख़ुद को अधूरा महसूस करते हो?
क्या ख़्वाब देखने से डर जाते हो?
या उनके पूरे होने से हिचकिचाते हो?
क्या कुछ ख़्वाबों को समझ भी पाते हो?
या उनकी समझ में और उलझ जाते हो?
क्या ख़्वाब देखने की
हिम्मत कर पाते हो?
क्या ख़्वाब देखते हो?

- अभिनव शर्मा "दीप"

Saturday, May 16, 2020

शून्यता

हैं आसमाँ मे बादल क्यूँ,
क्या बारिश आएगी?
या बूंदों की तरस मे,
ज़िंदगी बीत जाएगी |
क्या इन् खेतों में,
फिर हरियाली छाएगी?
या सूखते हुए मिट्टी के साथ,
जड़ भी सूख जाएगी |

कभी बारिश का पानी,
यहां भी बरसा था,
प्यार की बाढ़ में,
ये गांव भी डूबा था |
पर आज सूखे इस भू पर,
क्या खुशहाली छाएगी?
या प्यार के एहसास से,
यह रूखी रह जाएगी |

कभी पेड़ों की हरियाली मे,
चिड़ियों का बसेरा था,
कभी हर रात के बाद,
नया एक सवेरा था |
पर क्या वैसी रोशनी,
फिर से आएगी ?
या अंधेरे से घिरे दिनों मे,
ज़िंदगी बीत जाएगी |

बंजर पड़ी है ज़मीन,
अब कहाँ फूल खिलेंगे,
पत्थर भरी इस राह पर,
बस अब कांटे ही मिलेंगे |
पत्थर हो जाएगी रूह,
अब क्या यह महसूस कर पाएगी?
कांटों का चुभना भी,
शायद, बता नहीं पाएगी |

-अभिनव शर्मा "दीप"

Friday, May 8, 2020

आज चांद आसमाँ से लापता हो गया

आज चांद, आसमाँ से लापता हो गया,
लगा जैसे आसमाँ भी अकेला हो गया |
खोए रहते थे सितारे, पहले भी गगन मे,
पर आज उनका खोना भी बेवजह हो गया,
क्योंकि आज चांद आसमाँ से लापता हो गया |

काले से आसमाँ मे छा जाते थे,
फैल कर कभी, चांद को भी छुपा जाते थे,
पर बादलों का बहना भी अनदेखा हो गया,
जब आज चांद आसमाँ से लापता हो गया |

रात के अंधेरे भी कुछ अजीब से लगने लगे,
जैसे अकेले मे, कुछ राज़ यह कहने लगे,
पर इनका कहना भी अनसुना सा हो गया,
जब आज चांद आसमाँ से लापता हो गया |

सागर की उछाले भी कम हो गई,
ऐसे जैसे लहरें ही खत्म हो गई,
हवाओं का बहना भी बंद सा हो गया,
जब आज चांद आसमाँ से लापता हो गया |

आ जाए शायद फिर कल चांदनी बरसाने,
अधूरी रह गई जो बातें, दोबारा सुनाने,
पर आज उसके ना होने को ज़माना हो गया,
उसके बिना जीना भी एक अफ़साना हो गया,
क्यूंकि आज चांद, आसमाँ से लापता हो गया |

-अभिनव शर्मा "दीप"

Sunday, May 3, 2020

सवाल

हैं सवाल बस, बिना जवाब के,
कब आते हैं, कब जाते हैं,
दिन-रात कभी, बस सताते हैं,
कभी सोते से जगाते हैं,
कभी नींद उड़ा ले जाते हैं |
हैं सवाल बस, बिना जवाब के |

ज़ंजीरो से जकड़े हैं,
ज़िंदा लाशों से गड़े हैं,
कभी बारिश की बूंदों सा,
बरस पड़ते हैं,
कभी तूफानी हवा सा,
बिगड़ने लगते हैं |
हैं सवाल बस, बिना जवाब के |

कैसे बंद कमरों में,
आ जाते हैं,
कभी खुले आसमान सा,
पीछे पड़ जाते हैं,
कभी चांदनी का सहारा ले,
या अमावस का अँधियारा ले,
बिना पूछे, बिना बताए,
बस, सवार हो जाते हैं |
हैं सवाल बस, बिना जवाब के |

सन्नाटों सा चीखने लगते हैं,
शोर से सुनसान हो जाते हैं,
कभी कुछ बताते हैं,
कभी बिना पूछे ही,
चले जाते हैं,
कभी फिर वापस आ कर,
ठहर ही जाते हैं |
हैं सवाल बस, बिना जवाब के |

कभी हर लफ़्ज़ मे,
सुनायी देते हैं,
कभी हर झलक मे,
दिखाई देते हैं,
आ जाते हैं, खेल जाने के लिए,
या शायद, तड़पाने के लिए,
या बस इतना जताने के लिए, कि,
हैं सवाल बस, बिना जवाब के |

शायद ये ज़हन की आग हैं,
या रूह पर दाग है,
जो बुझाते ना बुझ पाते हैं,
ना मिटते, ना मिटाते  हैं,
शायद ये मेरा चेहरा हैं,
बिना नक़ाब के,
हैं सवाल बस, बिना जवाब के |

-अभिनव शर्मा "दीप"

मौसम

The heat used in this poem is used as a 
metaphor for corruption.
Feel these words from the youth
of the nation, who is tired of this
heat, and wants to end it, even if
it costs him his life.


इतनी गर्मी सह नहीं पा रहे, चलो बारिश ले आते हैं,
इस सूखी धरा को, चलो थोड़ा भिगाते हैं |

कहाँ सोये हैं ईमान के बादल, या फिर ये खो गए,
ढूंढते हैं इनको, चलो इनको जगाते हैं |

गब़न की आग ऐसी लगे, कि सब झुलस जाए,
चलो इस आग को, लगने से पहले बुझाते हैं |

यह डूब रही है दुनिया, चलो इसको बचाते हैं,
गोते खा कर ही सही, आज तैरना सीख जाते हैं |

-अभिनव शर्मा "दीप"

Friday, May 1, 2020

तानाशाही

यह कैसा कोहरा है, क्यूँ  धुआं सा छाया है?
क्या यह देश प्रेम है, या अंधी भक्ति का साया है?

सत्ता के खिलाफ होना, क्या देश द्रोही हो जाना है?
पर कब सत्ता की ग़ुलामी करना, आज़ादी कहलाया है?

राज्य और राष्ट्र का फर्क़ क्या इतना कठिन है?
की राज्य की लड़ाई ने, राष्ट्रीयता को भुलाया है?

देश कहां पहले भी उन्नति की ओर अग्रसर था,
पर आज राजा की भक्ति कर, उसे घुटने पर ले आया है |

विरोध मुक्त राजनीति, कब जनतंत्र का हिस्सा थी,
चुनाव मे जीते राजाओं को, बस तानाशाह बनाया है |

-अभिनव शर्मा "दीप"