राख से रंगोली बनाते,
टूटे सपनों के घर सजाते,
जीते हैं अनकही आरज़ूओ के साथ,
और फिर अधूरी सी मौत मर जाते।
खोए हुए अतीत का अफ़सोस जताते,
हर पल को जीना भी भूल जाते,
रहते हैं परेशानियों के साथ,
और परेशानियों मैं ही दब कर मर जाते।
नाकाम सी क़िस्मत को आज़माते,
हाथ की लकीरों पर भरोसा जताते,
भाग्य पे अंधा विश्वास कर के,
अन्धों की ज़िन्दगी जी, मर जाते।
पूरी ज़िन्दगी बिता के कुछ पैसे कमाते,
उन पैसों से एक दिन भी ना ख़रीद पाते,
अमीरी-ग़रीबी सब यहीं छोड़ कर के,
नंगे कर के दफ़नाए, जलाए जाते।
इस इंसान को कोई इतना समझाओ,
इस बेवक़ूफ़ियत से कोई इसको बचाओ,
बताओ इसे कोई जीने का अन्दाज़,
कोई दो इसे इज़हार करने की आवाज़,
कोई बताओ हर पल जीने का राज़,
सिखाओ इसे करना मेहनत पे नाज़,
बताओ इसे पैसा कैसा है धोखेबाज़।
बचाओ इसे यूँ रोज़ मरने से,
बचाओ इसे ज़िन्दगी से डरने से,
समझाओ इसे जीने का मक़सद,
बताओ इसे मरने का मतलब,
शायद तुम्हारी बात का असर हो जाए,
हर पल की इसे बस क़दर हो जाए,
मरने से पहले यह कुछ यूँ जिए,
बस एक बार जी कर अमर हो जाए।
-अभिनव शर्मा “दीप”
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