आज मैं निकली थी अपना बस्ता ले कर,
अपने अरमानों को अपने बस्ते में भर कर,
चांद और तारों की चाहत नहीं मुझे,
बस, एक खुला आसमान चाहती हूँ |
मुश्किलों का भार, कंधों को और मज़बूत करेंगे,
सामने आती रुकावटें, मेरी छलांग का सबूत बनेंगे,
अब नहीं डरती मैं, मुश्किलों से या रुकावटों से,
इनकी नींव पर ही तो, मेरे कयी आशियान बनेंगे |
बाबा कहते हैं, लड़किया पढ़ कर क्या करेंगी,
घर की लक्ष्मी बन, घर ही तो बसाएंगी,
पर बाबा को समझाना भी तो मुश्किल है,
की पढ़ कर ल़डकियाँ घर ही नहीं, पर देश भी बसाएंगी |
घर से स्कूल की दूरी कुछ ज्य़ादा लंबी लगती थी,
रस्ते दिखते नहीं थे, और पैरों बेड़ियाँ लगी थी,
पर चलने लगे जब, रस्ते आसान होते गए,
बेड़ियाँ टूट गई, और पैर पंख बन गए |
स्वाभिमानी हूं, कुछ कर के दिखाऊंगी,
मैं उड़ सकती हूं, मैं उड़ के दिखाऊंगी,
कागज़ कलम तो दो, में शोर भी मचाउंगी,
मैं भी इंदिरा हूं, देश भी चलाऊंगी।।
बस रस्ते ना रोको मेरे, मंज़िल पर ख़ुद पहुंच जाऊंगी,
मत रोको मुझे बोलने से, मै विश्व को राग सुनाऊंगी,
मत बोझिल करो मेरी बाहें, मै देश को बनाऊंगी,
मत बांधो मेरे पैरों को, मैं कल्पना बन अंतरिक्ष लांघ जाऊंगी ।
-डॉ मनु राज शर्मा एवं अभिनव शर्मा "दीप"
2 comments:
Beautifully penned 😊
@Frankie,that's a ton. Much appreciated. Will keep working on them.
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