Wednesday, April 22, 2020

ज्ञापिका

है जश्न ये कैसा, क्या जीता है?
कौन से दुर्ग पर विजय पायी है?
अभी तो संग्राम चल रहा है,
अभी कहाँ पूरी हुई लड़ाई है |

हो आनंदित, भूल गए तुम,
किस लक्ष्य से द्वंद छेड़ा था,
किस लिए इस दुनिया ने रुख,
समर की ओर मोड़ा था |

विपत्ति ग्रस्त है विश्व आज भी,
कहाँ मिला इसे समाधान है,
झूल रहा है मौत की गोद में,
मांगता तुम्हारा योगदान है |

है नहीं कोई आखेटक यहां,
पर बन गए सब आखेट हैं,
प्रकृति के समक्ष हार रहे,
पर होते नहीं सचेत हैं |

और कितनी जानें जाने पर,
यह बोध हो पाएगा,
कि जुड़ कर नहीं लड़े अगर,
मानुष्य विलुप्त हो जाएगा |

दृढ़ हो कर डटे रहो,
संगरोधित रहना और सहना है,
कठिन इस वक़्त का हम सब ने,
मिल कर संहार करना है |

भटकते हुए इस जग को,
फिर से सहारा मिल जाएगा,
डूबती इस दुनिया की नाव को,
फिर से किनारा मिल जाएगा |

- अभिनव शर्मा "दीप"

Thursday, April 9, 2020

क्या तुमको अकेलेपन का एहसास कराए,
कभी ख़ुद को, ख़ुद से भी अकेला नहीं पाते हम |

सोचते हैं जब, अब किसी की नहीं ज़रुरत,
तो तन्हाई में भी अकेले नहीं रह पाते हम |

मुश्किलें कयी हैं, पर गिनाये तुमको क्या क्या,
उन मुश्किलों का सामना भी तो नहीं कर पाते हम |

कभी अंदर के इंसान को जगाना चाहते हैं,
पर कमबख्त, अंदर भी तो नहीं जा पाते हम |

और इस इश्क़ का भी एहसास, ऐसा कैसा है,
कि इसमे डूबे बिना, जी भी तो नहीं पाते हम |

इस आग के दरिया में कब तैरना मुमकिन था,
पर डूबना भी चाहे, तो साहिल पर आ जाते हम |

बैठ साहिल पर फिर देखते हैं तन्हाई को,
क्योंकि, तन्हाई से भी तो इश्क़ नहीं कर पाते हम |

क्या सुनाए तुमको अपने दर्द की दास्तान,
दर्द को ज़ुबान भी तो नहीं दे पाते हम |

कभी सोचते हैं, कि लिख देंगे आग ईन पन्नों पर,
पर पानी पर अपने नाम की, छलक तक नहीं छोड़ पाते हम |

-अभिनव शर्मा "दीप"