कहीं आग सा तपा है,
कभी बाढ़ में बहा है,
कहीं ज्वालामुखी की-
ज्वाला सा,
पनपता ही रहा है,
यह देखो द्वंद छिड़ा है |
कहीं गगन को-
आधार बना,
महलों सा बसा है,
कभी गिर कर यूं टूटा, कि,
खण्डहर भी नहीं रहा है,
तो कभी महलों और
खण्डहरों के बीच में फंसा है,
यह देखो द्वंद छिड़ा है |
कभी दृश्य देख कर दंग है,
कहीं कर्म कर, कर तंग है,
कभी दर्शक और कर्ता के,
बीच में पड़ा है,
यह देखो द्वंद छिड़ा है |
कहीं सूर्य की चमक से,
ज़्यादा भी चमका है,
कभी अंधियारे में,
अंधेरों सा,
भटकता भी रहा है,
तो कभी रात और दिन के,
बीच में खड़ा है,
यह देखो द्वंद छिड़ा है |
कहीं जीता है,
कहीं हारा है,
पर आज-
हार और जीत का,
फर्क़ भूल चुका है,
यह कैसा द्वंद छिड़ा है |
- अभिनव शर्मा "दीप"
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